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भारत में आर्थिक असमानता: क्या ‘सबका विकास’ सिर्फ एक नारा बन गया है?

पिछले एक दशक में भारत की जीडीपी तेजी से बढ़ी है, लेकिन इस आर्थिक प्रगति का लाभ केवल अमीरों तक सीमित रहा है। बढ़ती आय और संपत्ति असमानता गरीबों को विकास से वंचित कर रही है। जानिए पूरी रिपोर्ट।

पृथ्वी सभी की जरूरतें पूरी कर सकती है, लेकिन किसी एक की लालच को नहीं।
महात्मा गांधी

नई दिल्ली: पिछले एक दशक में भारत ने जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की है और खुद को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया है। लेकिन इस तेज़ी के पीछे एक कड़वी सच्चाई छिपी है — देश में आर्थिक असमानता (Economic Inequality) लगातार बढ़ रही है और गरीबों को इस विकास का फायदा नहीं मिल पाया है।

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    भले ही जीडीपी के आँकड़े समृद्धि का संकेत देते हैं, लेकिन गहराई से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि इस विकास का लाभ सभी तक समान रूप से नहीं पहुंचा है। परिणामस्वरूप, अमीर और आम लोगों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है।

    ऐसा लगता है कि मोदी सरकार का नारा “सबका साथ, सबका विकास” अब बदलकर सिर्फ “सबका साथ, कुछ का विकास” बनकर रह गया है।

    आर्थिक असमानता बनाम आर्थिक विकास

    भारत की अर्थव्यवस्था 2014 में लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर से बढ़कर 2024 में 3.7 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गई है। अकेले 2023-24 में जीडीपी 8.2% की दर से बढ़ी, जो देश की आर्थिक मजबूती को दर्शाता है।

    लेकिन यह विकास संपत्ति के समान वितरण में नहीं बदल पाया। आज भारत की शीर्ष 1% आबादी देश की 22.6% आय और 40.1% संपत्ति पर कब्जा किए हुए है — जो पिछले कई दशकों में सबसे अधिक है। यह असमानता अमेरिका और ब्राजील जैसे विकसित देशों से भी अधिक है।

    आइए आंकड़ों पर एक नज़र डालते हैं

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    आंकड़ाविवरण
    1%भारत की शीर्ष 10% आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 77% हिस्सा है। 2017 में उत्पन्न हुई कुल संपत्ति का 73% केवल शीर्ष 1% अमीरों के पास गया, जबकि 67 करोड़ गरीब भारतीयों की संपत्ति में मात्र 1% की वृद्धि हुई।
    70भारत में 119 अरबपति हैं। 2000 में यह संख्या केवल 9 थी, जो 2017 में 101 हो गई। 2018 से 2022 के बीच भारत में हर दिन 70 नए करोड़पति बनने का अनुमान है।
    10 गुनाअरबपतियों की संपत्ति 10 गुना बढ़ी है और उनकी कुल संपत्ति भारत सरकार के 2018-19 के संपूर्ण बजट (INR 24,422 अरब) से अधिक है।
    63 मिलियनहर साल 6.3 करोड़ भारतीय लोग केवल स्वास्थ्य सेवाओं की लागत के कारण गरीबी में धकेल दिए जाते हैं — यानी हर सेकंड दो लोग।
    941 वर्षभारत के ग्रामीण क्षेत्रों में न्यूनतम मजदूरी पर काम करने वाले एक व्यक्ति को 941 साल लगेंगे उतनी कमाई करने में, जितनी एक प्रमुख परिधान कंपनी का शीर्ष कार्यकारी एक साल में करता है।

    स्रोत: Oxfam International- “India: extreme inequality in numbers

    धन का बढ़ता असमान बंटवारा

    • संपत्ति असमानता: भारत में सबसे अमीर 1% लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 40% से अधिक हिस्सा है, जबकि निचले 50% लोगों के पास केवल 3% संपत्ति है।
      (स्रोत: Oxfam रिपोर्ट – “Survival of the Richest: The India Story”)
    • यह आंकड़ा भारत के इतिहास में सबसे ऊंचे स्तर पर है और औपनिवेशिक काल (British Raj) से भी ज़्यादा असमानता को दर्शाता है।
    • ग्रामीण-शहरी अंतर: औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (MPCE) ग्रामीण क्षेत्रों में ₹4,122 और शहरी क्षेत्रों में ₹6,996 अनुमानित है। (स्रोत: घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2023-24)
    • मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग की आमदनी या तो स्थिर रही है या धीरे-धीरे घटी है।
    • लैंगिक वेतन अंतर: भारत में पुरुषों को कुल श्रम आय का 82% प्राप्त होता है, जबकि महिलाओं को मात्र 18%(स्रोत: वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट 2022)
    भारत में बढ़ती आय असमानता
    भारत में बढ़ती आय असमानता

    अर्थशास्त्रियों ने भारत में संपत्ति के इस अत्यधिक संकेंद्रण को “बिलियनेयर राज” कहा है, जो अमीरों के बीच संपत्ति के असमान वितरण को दर्शाता है। 1991 के बाद से, भारत में अरबपतियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। 2022 तक, भारत में 162 अरबपति ऐसे हैं जिनकी संपत्ति 1 अरब डॉलर से अधिक है।

    शीर्ष वर्ग की यह तेज़ी से बढ़ती संपन्नता आम जनता की आर्थिक स्थिरता और आय वृद्धि की रफ्तार से मेल नहीं खाती।

    भारत में आर्थिक समूहों द्वारा औसत संपत्ति हिस्सेदारी (1961-2020)

    वर्षनिचले 50% की औसत संपत्ति हिस्सेदारीशीर्ष 10% की औसत संपत्ति हिस्सेदारीशीर्ष 1% की औसत संपत्ति हिस्सेदारी
    1961-197012.29%43.18%11.87%
    1971-198011.75%42.25%11.23%
    1981-199010.91%45.00%12.50%
    1991-20008.36%54.57%23.31%
    2001-20108.10%56.60%25.70%
    2011-20206.12%63.68%31.55%

    नोट: यह डेटा World Inequality Database से प्राप्त किया गया है। औसत संपत्ति हिस्सेदारी को वार्षिक औसत के आधार पर गणना किया गया है।

    जीडीपी ग्रोथ बनाम जमीनी सच्चाई

    जीडीपी के आँकड़े आर्थिक मजबूती का आभास जरूर देते हैं, लेकिन वे आम लोगों की वास्तविक ज़िंदगी की कठिनाइयों को नहीं दर्शाते। भारत की बड़ी आबादी अब भी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करती है, जहां न नौकरी की सुरक्षा है न ही पर्याप्त वेतन।
    युवाओं में बेरोजगारी की दर भी चिंताजनक है और कई लोग अब भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं।

    • सरकार का दावा है कि 2023 में भारत की GDP ग्रोथ 7.6% रही। लेकिन यह सिर्फ औसत का खेल है।
    • जमीनी हकीकत ये है कि:
      • बेरोजगारी दर ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच चुकी है।
      • करोड़ों लोग अभी भी अनौपचारिक क्षेत्र (informal sector) में काम कर रहे हैं, जहां ना स्थिर नौकरी है और ना ही पेंशन जैसी सुविधाएं।
    • ‘Make in India’ जैसी योजनाओं के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी GDP में घटी है।

    नीतियों का बुरा असर

    • नोटबंदी (2016) का असर सबसे ज़्यादा गरीबों, छोटे व्यापारियों और दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ा। लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं।
    • GST (वस्तु एवं सेवा कर) लागू होने से छोटे और मंझोले व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हुए।
    • इन नीतियों से आर्थिक असमानता और ज़्यादा बढ़ गई, जबकि कुछ बड़े उद्योगपतियों को फायदा हुआ।

    बढ़ती असमानता केवल गरीबों के लिए नहीं, पूंजीपतियों के लिए भी खतरा है

    अगर सही मायनों में देखा जाए, तो लगातार बढ़ती आय की असमानता (Income Inequality) केवल समाज के कमजोर वर्गों के लिए ही नहीं, बल्कि पूंजीपतियों (Capitalists) के लिए भी दीर्घकालीन रूप से हानिकारक सिद्ध हो सकती है। दुर्भाग्यवश, मौजूदा व्यवस्था इसे गंभीरता से नहीं ले रही है।

    अगर समय रहते इसे नहीं समझा गया, तो यही असमानता पूंजीवाद की आत्महत्या (Suicide of Capitalism) का कारण बन सकती है। आइए इसे दो महत्वपूर्ण पहलुओं में समझें:

    1. कम आमदनी = कम खपत क्षमता

    जब देश की बड़ी आबादी की आय आर्थिक विकास और मुद्रास्फीति (inflation) के अनुपात में नहीं बढ़ती, तो उनकी खरीदने की शक्ति घटती है। इसका सीधा असर उन्हीं उत्पादों की बिक्री पर पड़ता है, जिन्हें पूंजीपति वर्ग बनाता है।

    यानी, यदि उपभोक्ता वर्ग के पास क्रय शक्ति नहीं होगी, तो मांग घटेगी, और अंततः व्यापार का पहिया धीमा हो जाएगा। यह स्थिति स्वयं पूंजीवाद के लिए आत्मघाती बन सकती है।

    2. असमानता + बेरोजगारी = क्रांति की भूमि तैयार

    यदि समाज आर्थिक न्याय से इनकार करता है, तो वह सामाजिक क्रांति को आमंत्रित करता है”जॉन एफ़ केनेडी (अमेरिकी राष्ट्रपति)

    इतिहास गवाह है कि जब-जब धन का अत्यधिक केंद्रीकरण और बेरोजगारी एक साथ बढ़ी है, तब-तब समाज में असंतोष फूटा है। फ्रांस की क्रांति, रूस की बोल्शेविक क्रांति जैसे उदाहरण बताते हैं कि सामाजिक विस्फोट का कारण सिर्फ गरीबी नहीं, बल्कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था और हाशिए पर धकेल दिया गया वर्ग होता है।

    आज भारत जैसे विकासशील देश में जब एक ओर अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, और दूसरी ओर युवाओं की बेरोजगारी ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच गई है, तो यह एक संकेत है—असंतुलन की दिशा में बढ़ते राष्ट्र का।

    आर्थिक विकास तभी स्थायी हो सकता है, जब वह समावेशी (inclusive) हो। अगर सिर्फ कुछ लोगों का विकास हो और बहुसंख्यक वंचित रह जाएं, तो यह पूंजीवाद की जड़ों को भी खोखला कर देगा।

    अब भी समय है सोचने का—नहीं तो इतिहास खुद को दोहराएगा।

    आज की वैश्विक और भारतीय अर्थव्यवस्था में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आर्थिक असमानता (Income Inequality) सिर्फ सामाजिक चिंता का विषय नहीं, बल्कि पूंजीपतियों (Capitalists) के लिए भी एक गंभीर चेतावनी है।

    अगर पूंजीवाद को दीर्घकाल तक जीवित और फलता-फूलता रखना है, तो यह जरूरी है कि वह आय के वितरण में न्यूनतम स्तर तक संतुलन बनाए।
    सिर्फ “विकास दर” नहीं, बल्कि “विकास का वितरण” भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

    नारा नहीं, नीति चाहिए —
    “विकास सबका हो, और बराबरी के साथ हो।”

    निष्कर्ष

    पिछले 10 वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था ने ऊपर से तो बहुत तेज़ी दिखाई है, लेकिन अंदर से असमानता, बेरोजगारी और सामाजिक असंतुलन बढ़ता गया है
    GDP की चमक भले ही अच्छी लगे, लेकिन जब तक आम नागरिक की स्थिति नहीं सुधरेगी, तब तक इस विकास को ‘झूठा विकास’ कहा जाएगा।

    भारत की आर्थिक यात्रा यह दर्शाती है कि विकास और समानता एक साथ चलने चाहिए। जीडीपी का बढ़ना सराहनीय है, लेकिन यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इसका लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुंचे। असमानता की खाई को ख़त्म करना सिर्फ नैतिक जिम्मेदारी नहीं बल्कि भारत की स्थायित्वपूर्ण और समावेशी प्रगति के लिए अनिवार्य है।

    जरूरत है ऐसी नीतियों की जो सबको साथ लेकर चलें — सिर्फ अमीरों को नहीं, बल्कि गरीबों, किसानों, मजदूरों और युवाओं को भी।

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    राजनीश कुमार एक प्रखर और दृष्टिकोणपूर्ण पत्रकार हैं जो वर्तमान में OBC Awaaz न्यूज़ पोर्टल में विदेश समाचार एवं नीतियों के संपादक के रूप में कार्यरत हैं। उन्होंने अपनी स्नातक शिक्षा दिल्ली के प्रतिष्ठित नेताजी सुभाष प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय (NSUT) से प्राप्त की है। इसके पश्चात, उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स (DSE Delhi) से अर्थशास्त्र में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की। राजनीश की रुचि अंतरराष्ट्रीय राजनीति, वैश्विक नीतिगत निर्णयों और सामाजिक न्याय के मुद्दों में विशेष रूप से रही है। उनका लेखन तटस्थ, तथ्यों पर आधारित और व्यापक विश्लेषण से परिपूर्ण होता है, जो पाठकों को समकालीन वैश्विक घटनाओं की गहराई से जानकारी प्रदान करता है। अपने अनुभव और विद्वत्ता के बल पर राजनीश कुमार OBC Awaaz के माध्यम से वंचित तबकों की आवाज़ को वैश्विक मंच तक पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

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