पटना: बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया है। हाल ही में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 36 में से 21 मंत्री पद अपने नाम कर लिए, जिससे यह साफ हो गया कि अब गठबंधन की बागडोर पूरी तरह बीजेपी के हाथ में है। इस बदलाव के साथ ही नीतीश कुमार की राजनीतिक स्वायत्तता कमजोर होती दिख रही है। कभी बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने वाले नीतीश अब सीमित विकल्पों के साथ खड़े हैं।
बीजेपी ने इस reshuffle (फेरबदल) के जरिए यह साफ संदेश दिया कि अब वह बिहार में जूनियर पार्टनर नहीं, बल्कि प्रमुख ताकत बन चुकी है। 2024 लोकसभा चुनावों में सीट बंटवारे की रणनीति के बाद अब बीजेपी ने राज्य सरकार में अपनी पकड़ मजबूत कर ली है, जिससे उसकी निर्भरता नीतीश कुमार पर कम होती जा रही है।
बीजेपी का मास्टरस्ट्रोक, नीतीश के प्रतिद्वंद्वियों को बढ़त
बीजेपी ने सिर्फ सत्ता संतुलन ही नहीं बदला, बल्कि जातीय समीकरणों को भी बारीकी से साधने की कोशिश की है। अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) को संतुलित प्रतिनिधित्व देने के साथ-साथ बीजेपी ने नीतीश के विरोधियों को भी बढ़ावा दिया। उपेंद्र कुशवाहा और जीतन राम मांझी जैसे नेताओं को फायदा पहुंचाकर बीजेपी ने यह संकेत दिया कि वह नीतीश कुमार के प्रभाव को सीमित करना चाहती है।
हालांकि, यह आक्रामक रणनीति जोखिम भरी भी हो सकती है। नीतीश कुमार ने पिछले दो दशकों में बार-बार पाला बदलकर खुद को प्रासंगिक बनाए रखा है। यदि उन्हें लगेगा कि बीजेपी उन्हें पूरी तरह हाशिए पर डाल रही है, तो वे कोई नया दांव खेल सकते हैं। कुर्मी समुदाय अब भी उनके प्रति वफादार है, और उनकी प्रशासनिक छवि भी कई मतदाताओं को आकर्षित करती है। यदि बीजेपी ने उन्हें जरूरत से ज्यादा दबाने की कोशिश की, तो वह गठबंधन को अस्थिर करने से भी पीछे नहीं हटेंगे।
राष्ट्रीय स्तर पर भी मचा सियासी घमासान
बीजेपी की यह रणनीति केवल बिहार तक सीमित नहीं है। केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में बिहार से आठ सांसदों को शामिल करने का फैसला भी इसी दिशा में एक कदम है। इसमें चार गैर-बीजेपी सांसदों को भी जगह दी गई, जिससे गठबंधन को मजबूत करने की कोशिश की गई। हालांकि, इस फैसले से पारंपरिक बीजेपी समर्थक जातियों, जैसे वैश्यों और राजपूतों, के बीच असंतोष उभरने लगा है।
बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह नीतीश कुमार को पूरी तरह दरकिनार किए बिना अपनी पकड़ कैसे बनाए रखे। फिलहाल उसे उनकी जरूरत है, लेकिन दीर्घकालिक लक्ष्य जेडीयू के बिना बिहार में मजबूत पकड़ बनाना ही दिखता है।
तेजस्वी का नया दांव, आरजेडी की बढ़ती ताकत
जबकि बीजेपी और जेडीयू आपसी सत्ता संतुलन में उलझे हुए हैं, दूसरी तरफ तेजस्वी यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) धीरे-धीरे अपनी जमीन मजबूत कर रही है। तेजस्वी यादव ने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करते हुए कोइरी-कुर्मी वोट बैंक को साधने की कोशिश की है, जो सीधे नीतीश और बीजेपी, दोनों के लिए चुनौती है।
आरजेडी ने लोकसभा में अपनी संसदीय समिति के प्रमुख के रूप में अभय कुमार कुशवाहा को नियुक्त किया, जिससे गैर-यादव ओबीसी समुदायों को लुभाने का प्रयास किया गया। यह रणनीति 2024 लोकसभा चुनावों में शाहाबाद क्षेत्र (आरा, बक्सर, सासाराम और औरंगाबाद) में कारगर साबित हुई, जहां 2019 में जीत दर्ज करने वाली एनडीए को करारी हार मिली।
2019 में बीजेपी ने आरा, बक्सर और सासाराम सीटें जीती थीं, जबकि औरंगाबाद जेडीयू के पास थी। लेकिन 2024 में आरजेडी के अभय कुशवाहा ने बीजेपी के सुशील कुमार सिंह को औरंगाबाद में हराया। आरा में सीपीआई-एमएल के सुधामा प्रसाद, बक्सर में आरजेडी के सुधाकर सिंह और सासाराम में कांग्रेस के मनोज कुमार की जीत ने संकेत दिया कि गैर-यादव ओबीसी और दलित मतदाता एक नई राजनीतिक धुरी की ओर बढ़ रहे हैं।
बिहार की जातिगत जनसंख्या—ईबीसी 36.01%, ओबीसी 27.12%, अनुसूचित जाति (एससी) 19.65% और सवर्ण 15.52% (2023 जातीय सर्वेक्षण के अनुसार)—इस नए राजनीतिक समीकरण की ताकत को दर्शाती है। आरजेडी ने निषाद समुदाय की पार्टी विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के साथ गठबंधन कर बेरोजगारी और सत्ता विरोधी लहर का लाभ उठाने की कोशिश की।
बीजेपी ने उपेंद्र कुशवाहा को आगे कर जेडीयू को कमजोर किया
बीजेपी की एक और बड़ी रणनीति उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा भेजने की रही। यह फैसला दलित नेता पशुपति पारस की अनदेखी साफ़ साफ़ दिखता है, जिससे बिहार के जातीय समीकरण में एक नया मोड़ आ गया है।
हालांकि, 2024 लोकसभा चुनावों में उपेंद्र कुशवाहा कराकट से तीसरे स्थान पर रहे, जिससे उनकी राजनीतिक पकड़ पर सवाल उठे थे। बावजूद इसके, बीजेपी उन्हें एनडीए में बनाए रखना चाहती है ताकि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को कमजोर किया जा सके।
क्या नीतीश के पास कोई नया विकल्प बचा है?
इन सभी घटनाक्रमों के बीच नीतीश कुमार के लिए विकल्प सीमित हो गए हैं। एनडीए में उनकी स्थिति कमजोर हो गई है, और आरजेडी में वापसी भी आसान नहीं दिख रही। तेजस्वी यादव अब उन्हें अपने नेतृत्व के अधीन रखना चाहते हैं, और कांग्रेस-वाम दल भी बिना ठोस आश्वासन के नीतीश को दोबारा गठबंधन में लेने के मूड में नहीं हैं।
अगला अध्याय: 2025 चुनावों की तैयारी
बिहार की राजनीति में यह बदलाव बीजेपी, जेडीयू और आरजेडी के लिए एक अहम मोड़ साबित हो सकता है। बीजेपी जेडीयू पर अपनी निर्भरता को खत्म करने की कोशिश कर रही है, लेकिन नीतीश कुमार अब भी एक ऐसा फैक्टर हैं जिसे पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
आरजेडी ने अपने सामाजिक गठबंधन को विस्तारित कर नई जमीन तैयार की है, जिससे बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के लिए नए खतरे पैदा हो गए हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि 2025 के विधानसभा चुनावों तक यह सत्ता का खेल कौन से नए मोड़ लेता है।