यद्यपि सरकार द्वारा जारी 16 मृतकों की सूची में अनंतनाग के ही एक कश्मीरी मुसलमान सैयद हुसैन शाह का नाम भी शामिल है। लगता है कि आतंकियों ने उनसे नाम नहीं पूछा और न ही उनके कश्मीरी हुलिए से उन्हें पहचाना।
यह भी संभव है कि दो आतंकियों द्वारा चलाई गई 50 राउंड की ताबड़तोड़ फायरिंग की चपेट में वे आ गए हों। जो भी हुआ हो, यह तथ्य निर्विवाद है कि मृतकों में केवल एक धर्म के लोग नहीं हैं। फिर भी यह भी संभव है कि हत्यारों ने नाम पूछकर हत्याएं की हों। जो सैलानी बच गए, उनके बयान इस बात की पुष्टि करते हैं।
यह घटना निंदनीय है—घोर निंदनीय।
दरअसल, कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। शेष भारत में नाम पूछकर हुई हत्याओं और बहती सांप्रदायिक हवाओं का असर कश्मीर में भी पड़ा हो, यह मानने में कोई संकोच नहीं है—हालांकि ऐसा नहीं होना चाहिए।
शेष भारत में नाम पूछकर की गई पहली हत्या पुणे के मोहसिन शेख की थी। वर्ष 2014 में, एक आईटी पेशेवर मोहसिन शेख को ‘हिंदू राष्ट्र सेना’ के नेता सहित 20 लोगों ने सड़क पर पीट-पीटकर मार डाला। सभी आरोपी गिरफ्तार हुए, लेकिन अंततः बरी कर दिए गए।
यह देश में नाम पूछकर की गई पहली हत्या थी। हत्यारों को दंडित करने के बजाय रिहा कर देना पूरे देश को यह संदेश देने जैसा था कि “यदि तुम भी ऐसा करोगे, तो बचा लिए जाओगे।”
इसके बाद नाम पूछकर की गई हत्याओं की जैसे बाढ़ आ गई—दादरी के अखलाक, पहलू खान, कासिम, रकबर, उमर, अलीमुद्दीन, मिन्हाज अंसारी, तबरेज अंसारी, जुनैद, ज़ाहिद… ह्यूमन राइट्स वॉच और इंडिया स्पेंड जैसे संगठनों के अनुसार, 2014 से 2019 के बीच केवल गाय से जुड़ी हिंसा में 140 से अधिक मुसलमानों की माब लिंचिंग की गई।
नाम पूछकर इस देश में 1980 के दशक में जो हुआ, वह भी पूरी दुनिया ने देखा है। निर्दोष सिखों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण चुन-चुनकर मारा गया। उन्हें टायरों में बाँधकर जलाया गया, उनकी संपत्तियाँ लूटी गईं, और उन्हें अपनी पहचान छुपाने पर मजबूर कर दिया गया।
कश्मीर का ही एक गाँव है “कुनन पोशपोरा”। 23-24 फरवरी 1991 की रात को 4 राजपुताना राइफल्स की 68वीं ब्रिगेड की एक बटालियन ने जम्मू और कश्मीर के कुपवाड़ा ज़िले के कुनन और पोशपोरा गाँवों में तलाशी अभियान चलाया।
सेना पर आरोप है कि उन्होंने गाँव को घेरकर 100 से अधिक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया। इसके परिणामस्वरूप पाँच बच्चियाँ जन्मीं। 22 साल बाद, एक मजिस्ट्रेट ने इस मामले की दोबारा जांच के आदेश दिए। पहले सभी आरोपियों को कोर्ट मार्शल कर क्लीन चिट दे दी गई थी।
इन पाँच बच्चियों ने 14 फरवरी 2016 को जयपुर में “Do You Remember Kunan Poshpora?” नामक पुस्तक लॉन्च की और वहाँ उपस्थित होकर बताया कि “हम वही पाँच बच्चियाँ हैं। आज तक हमारे पिता कौन हैं, यह किसी को नहीं पता।”
हाल ही में एक ट्रेन में पुलिस अधिकारी चेतन सिंह चौधरी ने नाम पूछकर चार लोगों को गोली मार दी। यह न केवल गलत था, बल्कि अमानवीय भी था।
हालांकि इन सभी उदाहरणों की आतंकवाद की घटना—जैसे कि पहलगाम में हुई—से तुलना नहीं की जा सकती, फिर भी मूल बात केवल एक ही है: सांप्रदायिकता।
सांप्रदायिकता बेलगाम होती है। जब यह फैलती है, तो इसकी कोई सीमा नहीं रह जाती। संभव है कि कल पहलगाम भी इसकी चपेट में आ गया हो—और जीवित बचे सैलानियों के अनुसार, ऐसा ही हुआ।
यह अत्यंत दुखद है। देश के तमाम मुख्यमंत्रियों, और संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए कि वे वोट के लिए जो सांप्रदायिक खेल खेल रहे हैं, उसका खामियाज़ा मासूम नागरिकों को अपनी जान देकर चुकाना पड़ रहा है।
देश के मुसलमानों से इस घटना के लिए सवाल पूछने के बजाय सरकार से सवाल पूछिए—कि जहां इतने लोग पर्यटन के लिए थे, वहां सुरक्षा कहाँ थी? सुरक्षा बल कहां थे? कैसे दो-तीन लोग वहाँ आकर बेधड़क फायरिंग कर सकते हैं?
सरकारों को भी यह सोचना चाहिए कि देश और उसके नागरिकों की सुरक्षा पर 100% ध्यान देने के बजाय सांप्रदायिक आधार पर देश में नफरत की आग फैलाना बंद करें। क्योंकि सांप्रदायिकता एक ऐसी आग है, जो फैलती है तो किसी को नहीं बख्शती—सबको चपेट में ले लेती है।
इसलिए देशहित में सभी भारतीयों को एकजुट होना ही पड़ेगा—और कोई विकल्प नहीं है।
जहाँ तक बात आतंकियों की है—उन्हें भारतीय सेना द्वारा जितनी जल्दी समाप्त किया जाए, वही मृतकों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सभी मृतकों को विनम्र श्रद्धांजलि।